भाषाविज्ञान/वाक्य के प्रकार
वाक्य के प्रकार पर बात करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि वाक्य का वर्गीकरण पाँच[1] आधार पर किया जाता है। जैसे-
- रचना के आधार पर
- आकृति के आधार पर
- अर्थ के आधार पर
- क्रिया के आधार पर
- शैली के आधार पर
अब वाक्य के प्रकारों पर विस्तार से बात की जा सकती है। जैसे-
रचना के आधार पर
सम्पादनइसके आधार पर वाक्य तीन प्रकार[2] के होते हैं-
- 1. सरल वाक्य
- सरल वाक्य वे वाक्य होते हैं, जिनमें एक उद्देश्य और एक विधेय होता है। अर्थात् एक संज्ञा और एक क्रिया होती है, जैसे — 'मोहन गाता है', 'राम खाता है'।
- 2. मिश्र वाक्य
- मिश्र वाक्य में एक मुख्य उपवाक्य और एक या एक से अधिक आश्रित उपवाक्य होते हैं। जैसे - 'मेरी कामना है कि तुम सफल बनो', 'जो ज्ञानी होते है वे सम्माननीय भी होते हैं'।
- 3. संयुक्त वाक्य
- संयुक्त वाक्य वें वाक्य होते है, जिनमें कोई भी उपवाक्य प्रधान या आश्रित नहीं होते है, बल्कि सभी समान स्तर के हैं। जैसे - 'काँच से ग्लास बनता है, ग्लास बहुत काम की वस्तु है, मनुष्य ग्लास से पानी पीता है' या 'जब मैं स्कूल से आऊंगा तब खाना खाऊंगा'।
आकृति के आधार पर
सम्पादनआकृति के आधार पर वाक्य चार प्रकार[3] के होते हैं-
- अयोगात्मक (Isolating or Analytical)
- अयोगात्मक वाक्यों में सभी पदों की स्वतंत्र सत्ता होती है। अयोग का अर्थ ही होता है प्रकृति और प्रत्यय अथवा अर्थतत्त्व और संबंधतत्त्व का योग न होना। इसीलिए ऐसे वाक्यों में पदों की रचना प्रकृति-प्रत्यय के योग से नहीं की जाती। प्रत्येक पद का अपना निश्चित स्थान होता है। इनमें कारक-चिह्न आदि स्वतंत्र शब्द होते हैं और इसी आधार पर इनका व्याकरणिक सम्बन्ध जाना जाता है। चीनी भाषा अयोगात्मक वाक्यों के लिए प्रसिद्ध है। इसमें पद क्रम निश्चित है — कर्ता, क्रिया, कर्म। विशेषण कर्ता के पूर्व आता है।[4] जैसे —
- ता ज़ेन (बड़ा आदमी) — यहाँ ता का अर्थ बड़ा और ज़ेन का अर्थ आदमी है।
- ज़ेन ता (आदमी बड़ा है) — इस वाक्य में 'ता' विधेय हो गया है।
- ता कु ओक। – बड़ा राज्य
- कु ओक ता। – राज्य बड़ा है।
- श्लिष्ट योगात्मक (Inflecting or fusional)
- इस प्रकार के वाक्यों में प्रकृति और परसर्ग जुड़े हुए (श्लिष्ट) होते हैं। ऐसे वाक्यों में प्रकृति (शब्द) या परसर्ग को अलगाना कठिन होता है। भारोपीय परिवार की प्राचीन भाषाएँ संस्कृत, लैटिन, ग्रीक, अवेस्ता आदि इसी प्रकार की भाषाएँ हैं।
- अश्लिष्ट योगात्मक (Agglutinating)
- इस तरह के वाक्यों में प्रकृति और प्रत्यय अथवा उपसर्ग का योग स्पष्ट पता चलता है। जैसे – सफलता और सुलभ। यहाँ 'सफल' और 'लभ' में क्रमशः 'ता' प्रत्यय और 'सु' उपसर्ग का योग स्पष्ट ही है।
- प्रश्लिष्ट योगात्मक (Incorporating or polysynthetic)
- इन वाक्यों में प्रकृति और प्रत्यय इतने अधिक घुले-मिले होते हैं कि पदों को अलग-अलग करना कठिन होता है। ऐसे में पूरा वाक्य ही एक शब्द जैसे लगने लगता है। दक्षिण अमेरिका की चेराकी, पेरीनीज परवत के पश्चिमी भाग में बोली जानेवाली बास्क आदि भाषाओं में ऐसे उदाहरण मिलते हैं।
अर्थ के आधार पर
सम्पादनअर्थ के आधार पर वाक्य के आठ भेद[5] माने जाते हैं -
- 1. विधानवाचक वाक्य
- वह वाक्य जिससे अर्थ सरलता रूप में प्राप्त होती है, वह विधानवाचक या विधि वाक्य कहलाता है। जैसे - वह पढ़ता है।
- 2. निषेधसूचक वाक्य
- जिस वाक्य में निषेध का बोध हो, उसे निषेधसूचक वाक्य कहते हैं, जैसे - वह नहीं पढ़ता है।
- 3. प्रश्नात्मक वाक्य
- जिस वाक्य में प्रश्न का बोध हो उसे प्रश्नात्मक वाक्य कहते हैं। जैसे – तुम क्या पढ़ते हो?
- 4. अनुज्ञात्मक वाक्य
- जिस वाक्य में आज्ञा का बोध हो, उसे अनुज्ञात्मक वाक्य कहते हैं। जैसे - एक गिलास पानी लाओ।
- 5. इच्छात्मक वाक्य
- जिस वाक्य में इच्छा का बोध हो, उसे इच्छात्मक वाक्य कहते हैं। जैसे - भगवान तुम्हें सुखी रखें।
- 6. संदेहात्मक वाक्य
- इस प्रकार के वाक्य में संदेह का बोध होता है। जैसे - वह पढ़ता होगा।
- 7. संकेतात्मक वाक्य
- जिस वाक्य में संकेत का बोध हो उसे संकेतात्मक वाक्य कहते हैं। जैसे - वह देखो सूरज।
- 8. विस्मयात्मक वाक्य
- जिस वाक्य में विस्मय या आश्चर्य का बोध हो, उसे विस्मयात्मक वाक्य कहते हैं। जैसे - वाह! भारतीय क्रिकेट टीम ने मैच जीत लिया!
क्रिया के आधार पर
सम्पादनक्रिया के आधार पर वाक्य दो प्रकार के होते हैं-
- 1. क्रियायुक्त वाक्य
- वे वाक्य जिनमें क्रिया हो क्रियायुक्त वाक्य कहलाते हैं। जैसे - हिंदी भाषा में 'राम पढ़ रहा है' और अंग्रेजी में 'RAM is reading.'
- 2. क्रियारहित वाक्य
- जिन वाक्यों में क्रिया ना हो उन वाक्यों को क्रियाविहीन वाक्य कहते हैं। बहुत सारे मुहावरे ऐसे हैं जिनमें क्रिया का प्रयोग नहीं पाया जाता है। जैसे - 'जिसकी लाठी उसकी भैंस', 'जैसी करनी वैसी भरनी' आदि।[6]
शैली के आधार पर
सम्पादनशैली के आधार पर वाक्य को तीन भागों[5] में बाँटा गया है -
- शिथिल
- शिथिल वाक्य में वक्ता या लेखक एक के बाद दूसरी बात उन्मुक्त भाव से कला या अलंकरण का सहारा लिए बिना कहता चलता है, जैसे-- महाभारत द्वापर युग में हुआ था। महाभारत में कृष्ण की भूमिका महत्वपूर्ण थी। प्रभु कृष्ण ना होते तो शायद पांडव जीत ना पाते।
- समीकृत
- समीकृत वाक्य में एक वाक्य अपने आस-पास के वाक्यों से संगति स्थापित किए रहती है। इसमें दोनों वाक्य एक दूसरे को पूरा करके संतुलन बनाते हैँ, जैसे-- जैसा राजा, वैसा प्रजा।, जिसकी लाठी, उसकी भैंस। कभी-कभी यें वाक्य एक दूसरे के विपरीत भी लगते है पर उस अवस्था में भी ये एक दूसरे के पूरक ही होते हैं। जैसे - कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली।
- आवर्त्तक
- आवर्त्तक वाक्य एक पूरे भाव से जुड़े रहते है, जिसमें हम अपने भावों को कई वाक्यों द्वारा व्यक्त करते हैं और अपने कहने के मूल उद्देश्य को अंत में कहते है। जैसे - मेरे भाइयों और बहनों! कोरोना वैश्विक महामारी से हम भारतीय जिस तरह लड़ रहे हैं, वह मिसाल देने योग्य है। अगर हम यूँ ही एक दूसरे का साथ देते रहें, तो जल्द ही इस महामारी पर विजय पा लेंगे। इसके लिए जरूरी है कि आप और हम यूँ ही साथ खड़े रहें। इसीलिए आपकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यह फैसला लिया गया है कि लॉकडाउन अगले 15 दिन के लिए बढ़ाया जाएगा।
शैली की दृष्टि से वाक्य का विचार वस्तुतः भाषा विज्ञान के क्षेत्र में नहीं पड़ता। उसका विचार काव्यशास्त्र में होता है किंतु वाक्य के भेदों पर विचार करते समय उसकी भी चर्चा आवश्यक होती है।
संदर्भ
सम्पादन- ↑ झा, सीताराम (1983). भाषा विज्ञान तथा हिन्दी भाषा का वैज्ञानिक विश्लेषण (2015 ed.). पटना: बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी. p. 200. ISBN 978-93-83021-84-0.
- ↑ शर्मा, राजमणि (1994). आधुनिक भाषा विज्ञान. पटना: वाणी प्रकाशन. p. 250. ISBN 978-81-7055-483-7.
- ↑ तिवारी, भोलानाथ. भाषाविज्ञान (1951 ed.). इलाहाबाद: किताब महल प्राइवेट लिमिटेड. p. 76-90.
- ↑ द्विवेदी, कपिलदेव (2021). भाषा-विज्ञान एवं भाषा-शास्त्र (17th ed.). वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन. pp. 307–309. ISBN 978-93-5146-042-8.
- ↑ 5.0 5.1 देवेन्द्रनाथ शर्मा 1966, p. 251.
- ↑ तिवारी, भोलानाथ. भाषा विज्ञान. p. 230. ISBN 8122500072.
स्रोत
सम्पादन- शर्मा, देवेन्द्रनाथ; शर्मा, दीप्ति (1966). भाषाविज्ञान की भूमिका (2018 ed.). दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन. p. 251. ISBN 978-81-7119-743-9.