भाषाविज्ञान/वाक्य की परिभाषा
मानव समाज द्वारा भाषा का प्रयोग वाक्यात्मक होता है। भाषा का प्रयोग अखंड प्रवाह की भाँति है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि भाषा का प्रयोग करने वाला वस्तुतः वाक्य ही बोलता है। इसीलिए भाषा-प्रयोग का मुख्य आधार वाक्य कहलाता है। वाक्य को प्रायः सार्थक शब्द या शब्दों का समूह माना जाता है जो भाव को व्यक्त करने की दृष्टि से अपने आप में पूर्ण हो। वाक्य को परिभाषित करने का प्रथम प्रयास भारत में पतंजलि और यूरोप में डायनोसियस थ्रैक्स (Dynosios Thrax)[1] द्वारा किया गया। पतंजलि ने वाक्य को कई तरह से परिभाषित किया है। एक ओर उन्होंने कारक, अव्यय, विशेषण और क्रियाविशेषण आदि से युक्त क्रियापद को वाक्य कहा है तो दूसरी ओर केवल एक प्रयुक्त क्रिया-पद को भी 'वाक्य' माना है। 'एकतिङ्वाक्यसंज्ञभावनीतिवाक्यम्।'[2] वाक्यपदीय में भर्तृहरि ने पतंजलि की भाँति ही वाक्य की अनेक परिभाषाएँ दी हैं। इनमें से सर्वाधिक उपयुक्त परिभाषा के अनुसार - 'पदमाद्यं पृथक् सर्वपदं साकांक्षमित्यपि।' इसमें जहाँ एक वाक्य के लिए सभी साकांक्ष पदों के युक्त होने का उल्लेख है, वहीं इस बात का भी स्पष्ट निर्देश है कि वाक्य में केवल एक पद भी हो सकता है।[3]
पाश्चात्य भाषाविदों द्वारा वाक्य की परिभाषा
सम्पादनए॰एच॰ गार्डिनर ने वाक्य को परिभाषित करते हुए कहा कि, "वाक्य एक या अनेक शब्दों का होता है, जो अभीष्ट अर्थ को व्यक्त करता है।" (A sentence is a word or set of words revealing an intelligible purpose.[4])
जार्ज क्योर्म के अनुसार "वाक्य में एक या अनेक शब्द इस प्रकार प्रयुक्त रहते हैं कि उनसे अभीष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति हो जाती है।" (A sentence is an expression of a thought or feeling by means of a word or words used in such form and manner as to convey the meaning intended.[5])
वाक्य पर विचार करते हुए लियोनार्ड ब्लूमफील्ड (Leonard Bloomfield) अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'लैंग्वेज' (Language), जो 1933 ईस्वी में प्रकाशित हुई थी, में कहते हैं कि - "प्रत्येक वाक्य एक स्वतन्त्र भाषिकरूप है और वह किसी व्याकरणिक रचना द्वारा अपने से महत्तररूप में अन्तर्विष्ट नहीं है।"[6] वाक्य विश्लेषण के लिए उनके द्वारा ‘immediate constituent’ (निकटस्थ अवयव) विश्लेषण पद्धति दी गई, जो बहुत अधिक प्रसिद्ध हुई थी।
वाक्य और पद का संबंध
सम्पादनवाक्य और पद का पारस्परिक संबंध चिंतकों में मतवैभिन्य का विषय रहा है। मीमांसकों में पद और वाक्य के महत्व के संबंध मे दो सिद्धांत प्रचलित हैं। पहला सिद्धांत कुमारिलभट्ट का अभिहितान्वयवाद है जिसके अनुसार वाक्य की अपेक्षा पद प्रधान है। दूसरा मत कुमारिल के ही शिष्य प्रभाकर का अन्विताभिधानवाद है जिसके अनुसार पद की अपेक्षा वाक्य प्रधान है।
1. अभिहितान्वयवाद - इसे पदवाद भी कहा जाता है। इसके प्रतिपादक कुमारिल भट्ट हैं। वे पद की सत्ता को प्रमुख और वाक्य को पदों का संयुक्त रूप मानते हैं। अभिहितान्वयवादी अभिधा शक्ति के द्वारा पदों की उपस्थिति के बाद उन पदार्थों के परस्पर (अन्वय) संबंध बोध के लिए 'तात्पर्या' नामक शब्द शक्ति मानते हैं। इसके अनुसार पदार्थों के अन्वित रूप वाक्यार्थ का बोध होता है।[7]
2. अन्विताभिधानवाद - इसे वाक्यवाद भी कहा जाता है। इसके अनुसार वाक्य की ही सार्थक सत्ता है और पद केवल उसके तोड़े गए अंश मात्र हैं।[8]
वाक्य शब्दों का समूह हो यह हर जगह ज़रूरी नहीं। जैसे - कोई पूछे कि 'तुमने खाना खा लिया' और उत्तर आए 'हाँ', तो यहाँ केवल 'हाँ' भी अर्थ की प्रतीति करा देता है। श्रोता ऐसे एक शब्दीय/पदीय वाक्यों का बोध करते समय अपने मन में लुप्त शब्दों को लाता है, जिससे अर्थ स्पष्ट हो जाए। श्रोता के मन में वाक्य उभरता है कि 'हाँ, मैंने खाना खा लिया।'
अर्थ की दृष्टि से वाक्य पूर्ण या अपूर्ण भी हो सकता है। जैसे - 'राम पुस्तक पढ़ रहा है।' यह वाक्य अपने आप में पूर्ण है, लेकिन इस वाक्य की पूर्णता श्रोता पर निर्भर करती है। अगर श्रोता यह जानना चाहे कि 'राम क्या कर रहा है' और उसको अपना उत्तर मिल जाता है, तब यह वाक्य अपने आप में पूर्ण होने के साथ-साथ श्रोता के लिए भी पूर्ण है। हालांकि श्रोता यदि यह जानना चाहे की 'कौन राम?' या राम 'कौन सी पुस्तक पढ़ रहा है?' तो यह वाक्य श्रोता के लिए अपूर्ण होगा। इसीलिए कहा जाता है कि वाक्य का बोध पूर्णतः श्रोता पर निर्भर करता है।
संदर्भ
सम्पादन- ↑ "A Sentence is combination of words, either in prose or in verse, making complete sense."The Grammar of Dynosios Thrax (PDF). 1874.
- ↑ शास्त्री, गुरुप्रसाद. पातञ्जल महाभाष्यम् (प्रथम राजसंस्करणम् ed.). काशी: चौखम्भा संस्कृत सिरीज़. p. 44.
- ↑ झा, सीताराम. भाषा विज्ञान तथा हिन्दी भाषा का वैज्ञानिक विश्लेषण (2015 ed.). पटना: बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी. p. 192. ISBN 978-93-83021-84-0.
- ↑ Gardiner, Alan H. (1932). The Theory of Speech and Language. OXFORD AT THE CLARENDON PRESS. p. 88.
- ↑ Curme, George O. (1925). English Grammar (1970 ed.). New York: Banrnes and Noble, Inc. p. 97.
- ↑ ब्लूमफील्ड, लियोनार्ड (1968). "वाक्य प्रतिरूप". भाषा (PDF). दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास. p. 199.
- ↑ आनन्दवर्धन, आचार्य (1942). विश्वेश्वर, आचार्य, ed. ध्वन्यालोकः (1985 ed.). वाराणसी: ज्ञानमण्डल लिमिटेड. p. 20.
सः वाच्यार्थः पर प्रधानतया प्रतिपाद्य येषां तानि तत्पराणि पदानि, तेषां भावः तात्पर्यम्, तद्रूपा शक्तिः तात्पर्या शक्तिः।
- ↑ शर्मा, देवेन्द्रनाथ; शर्मा, दीप्ति (1966). भाषाविज्ञान की भूमिका (2018 ed.). दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन. p. 241. ISBN 978-81-7119-743-9.