भाषा एक सतत परिवर्तनशील सामाजिक प्रत्यय है जिसका प्रयोग व्यक्ति समाज में भाव, विचार या इच्छाओं के आदान-प्रदान के लिए करता है। यही कारण है कि सामाजिक स्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप ही भाषा का स्वरूप भी निर्मित होता है। चूँकि व्यक्ति अनेक हैं और सामाजिक स्थितियाँ भी, इसीलिए भाषा के भी विविध रूप दिखाई पड़ते हैं। शिक्षा, दैनिक व्यवहार, व्यवसाय और ज्ञान-विज्ञान के इतने अनुशासन साथ ही देश से लेकर विदेश तक इतने प्रकार के संबंध हैं कि उनकी प्रकृति के अनुसार भाषा के भी विविध रूप निर्मित तथा विकसित होते रहते हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए भाषा के कुछ प्रमुख रूपों का उल्लेख हम निम्नानुसार कर सकते हैं -

भाषा (परिनिष्ठित एवं साहित्यिक)

भाषा का वह आदर्श रूप जिसका प्रयोग एक बहुत बड़े समुदाय द्वारा होता है अर्थात उसका प्रयोग शिक्षा, शासन और साहित्य रचना के लिए होता है। हिंदी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी आदि इसी श्रेणी की भाषाएं हैं। भाषा के इस रूप को आदर्श या परिनिष्ठित भाषा कहते हैं। परिनिष्ठित भाषा विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त और व्याकरण द्वारा नियंत्रित होती है।[1]

विभाषा (बोली)

एक परिनिष्ठित भाषा के अंतर्गत कई बोलियां आती है। भाषा के स्थानीय भेद से प्रयोग भेद में भी अंतर पड़ता है और उसी के आधार पर बोलियों का निर्माण होता है। यह स्थानीय भेद मुख्यत: भौगोलिक कारणों से प्रेरित होते हैं। जैसे कोई खड़ी बोली में 'जाता हूँ' ब्रज भाषा में 'जात हौं' और भोजपुरी में 'जात ह‌ई' कहे तो हिंदी भाषा-भाषी इन बोलियों को आसानी से समझ सकता है। इसका कारण इन बोलियों के बीच की बोधगम्यता है। बोधगम्यता रखते हुए स्थानीय भेद को विभाषा कहते हैं। अंग्रेजी में विभाषा को 'डायलेक्ट' (dialect) कहते हैं।[2]

विशिष्ट भाषा (व्यावसायिक भाषा)

व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है इसलिए वह अपनी जीविका चलाने के लिए किसी न किसी पेशे से जुड़ा रहता है। जैसे - शिक्षा, प्रशासन, न्यायालय, व्यापार, कृषि, निर्माण इत्यादि। भिन्न-भिन्न व्यवसायों की भिन्न-भिन्न शब्दावली होती है इसीलिए इसे विशिष्ट भाषा कहते हैं। इसी प्रकार ज्ञान के अनुशासनों - राजनीति-शास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि की भी अपनी विशिष्ट शब्दावली होती है।

कूटभाषा

जिसमें कुछ बता कर कुछ छिपाने का उद्देश्य हो, उसे कूट भाषा (code language) कहते हैं। इसका प्रयोग प्रायः मनोरंजन और गोपन के उद्देश्य से होता है। काव्य में इसका प्रयोग मनोरंजन के लिए होता है। सांप्रदायिक सिद्धांतों का निरूपण करते हुए भी कूट भाषा का प्रयोग होता है। जैसे कबीर की उलटबाँसियाँ। तस्कर, व्यापारी, गुप्तचर, सैनिक आदि इस कूट भाषा का प्रयोग करते हैं, ताकि उनके वर्ग के लोग ही इसका असली अर्थ समझ सकें। चोरों के लिए बारात में जाने का मतलब चोरी करने जाना होता है। इसी प्रकार ससुराल जाने का अर्थ भी जेल में जाना है। नज़राना देना रिश्वत देने के पर्याय के रूप में प्रयोग होता है। इसी प्रकार कूट भाषा का प्रयोग वर्ण विपर्यय के रूप में भी होता है। बच्चे लोग इसका खासकर उपयोग करते हैं, जैसे पानी को नीपा कहना या दही-रोटी को हीद-टीरो कहना आदि इसके उदाहरण हैं।

कृत्रिम भाषा

कृत्रिम भाषा का उपयोग अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसका उद्देश्य भाषा भेद को मिटा कर विश्ववासियों के लिए एक भाषा की व्यवस्था करना होता है। इसके संबंध में मेरिओ पेई का मानना है की कृत्रिम भाषा व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूह के द्वारा निर्मित या उत्पन्न की गई है। यह अंतरराष्ट्रीय संपर्क या विशिष्ट समुदाय द्वारा प्रयोग की जाती है। इसी को ध्यान में रखते हुए डॉक्टर एल॰ एल॰ जामेनहर्फ़ ने 1887 ई॰ में 'एस्पेरांतो' (Esperanto) भाषा का निर्माण किया। इसमें कई मौलिक रचनाएँ हुईं और कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया गया। हालाँकि कृत्रिम भाषा को अपनाने में कई समस्याएँ उत्पन्न हुईं। माना गया कि यह भाषा केवल कामचलाऊ है, इसमें गंभीर विषयों का संप्रेषण नहीं हो सकता। यह भी महसूस किया गया कि इस भाषा में विचार तो किया जा सकता है लेकिन अपनी संवेदना प्रकट करने के लिए हमें मातृभाषा की आवश्यकता होती है।

मिश्रित भाषा

मिश्रित भाषा का उपयोग व्यापारिक उद्देश्य से किया जाता है। इससे विभिन्न भाषा-भाषी कोई वस्तु खरीद मोल कर सकते हैं। इस प्रकार की एक भाषा चीन में विकसित हुई जिसका नाम है पिजिन (Pidgin) भाषा। जिसके शब्द तो अंग्रेजी के हैं लेकिन उच्चारण ध्वनि और व्याकरण चीनी भाषा के हैं। इस भाषा में न कोई रचना हो सकती है और न ही इसका व्यवस्थित व्याकरण बनाया जा सकता है। हालाँकि इसकी गणना विश्व के समृद्ध भाषाओं में होती है, इसलिए इसका प्रयोग सहायक भाषा के रूप में किया जाता है।

क्रेयोलित या क्रियोल भाषा (Creolized language)

क्रेयोलित या क्रियोल भाषा उस भाषा को कहते हैं जो दो या दो से अधिक भाषाओं से मिलकर बनी होती है। इसे खिचड़ी भाषा भी कहते हैं। यह किसी आम मिश्रण से बनी बोली से भिन्न होती है क्योंकि क्रेयोलों के बोलने वाले इन्हें अपनी मातृभाषा के रूप में अपना लेते हैं और इनमें प्राकृतिक भाषाओं के लक्षण उपस्थित होते हैं। यह पिजिन से अलग होती हैं क्योंकि पिजिन बोलियाँ कई भाषा-समुदायों के एक साथ सम्पर्क होने पर भाषा-मिश्रण से अपसी तालमेल में प्रयोग होने लगती हैं। उन्हें कोई भी समुदाय अपनी मातृभाषा के तौर पर प्रयोग नहीं करता। क्रियोल भाषाओं के शब्द उनकी मातृभाषाओं से आते हैं जिनमें अक्सर एक या दो प्रमुख होती हैं, मसलन मॉरीशस में बोली जाने वाली क्रेयोल में अधिकतर फ़्रान्सीसी और भोजपुरी के शब्द हैं।[3]

अपभाषा या कठबोली (Slang)

भाषा में ही जब सामाजिक दृष्टि से ऐसे प्रयोग आ जाते हैं जो शिष्ट रुचि को अच्छे प्रतीत नहीं होते तो उनको अपभाषा कहते हैं। अंग्रेजी में इसे स्लैंग (Slang) करते हैं। भाषा में शास्त्रीय आदर्शों जैसे शुद्धता, श्लीलता आदि की रक्षा होती है लेकिन अपभाषा में नहीं होती है। भाषा में किसी शब्द का निर्माण कैसे होगा उसका एक व्याकरण सम्मत नियम होता है लेकिन अपभाषा में उन नियमों पर ध्यान नहीं दिया जाता है। जैसे - भोकाल, चौकस, कूल, LOL आदि शब्द अपभाषा का उदाहरण माने जा सकते हैं। भाषा के शब्दों का अपभाषा में अर्थ विस्तार दिखता है। भाषा में जो शब्द जिस रूप में प्रचलित रहता है अपभाषा में उससे हटकर हीन अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे मैंने मारते मारते उसका 'कचूमर निकाल दिया'; उसने मुझे 'धँसा दिया'; कोई 'मक्खन लगाना' उनसे सीखे।[4]

विशेषक भाषा (Distinctive language)

संसार में कई ऐसे समुदाय हैं जिनमें विभिन्न प्रकार की द्विभाषिकता (dichotomy) की स्थिति पायी जाती है। इसका आधार कभी वर्ग-भेद होता है तो कभी लिंग-भेद। जैसे - संस्कृत नाटकों में राजा, ब्राह्मण आदि उच्च वर्ग के लोग संस्कृत का प्रयोग करते हैं तो आम जनता भिन्न-भिन्न प्राकृतों का। आधुनिक भाषाओं में देखा जाय तो तिब्बती में सामान्य जनों के लिए व्यवहार की जाने वाली भाषा का स्वरूप शिष्ट जनों के लिए व्यवहृत भाषा के रूप से सर्वथा भिन्न होती है।

संदर्भ

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  1. देवेन्द्रनाथ शर्मा, दीप्ति शर्मा 2018, p. 46.
  2. देवेन्द्रनाथ शर्मा, दीप्ति शर्मा 2018, p. 46-47.
  3. विकिपीडिया पर क्रेयोल भाषा पढे़ं
  4. विकिपीडिया पर पढ़ें अपभाषा

देवेन्द्रनाथ शर्मा, दीप्ति शर्मा, भाषाविज्ञान की भूमिका (2018), राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली. ISBN : 978-81-7119-743-9