भाषाविज्ञान/भाषा की परिभाषा एवं अभिलक्षण

भाषा की उत्पत्ति चाहे जब भी जिस प्रक्रिया से भी हुई हो, व्यावहारिक तौर पर वह जिन दो प्रतीकात्मक रूपों में प्रकट होती है उन्हें हम ध्वनि प्रतीक या लिपि प्रतीक कह सकते हैं। इनमें ध्वनि प्रतीकों की उत्पत्ति और उनके प्रत्यक्ष होने में मानव-वागीन्द्रियों (human speech organs) द्वारा उत्पत्ति, वायु के भौतिक गुण-धर्म द्वारा संवहन तथा कान के द्वारा ग्रहण की प्रक्रिया संपन्न होती है। ध्वनि प्रतीकों पर ही आश्रित लिपि प्रतीकों को जब किसी आधार (फ़लक, काग़ज़ आदि) पर अंकित किया जाता है तो हमारी आँखों के संयोग से उनका प्रत्यक्षीकरण होता है।

भाषा के संदर्भ में यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि ये प्रतीक चाहे ध्वन्यात्मक हों चाहे लिप्यात्मक, हमेशा यादृच्छिक (arbitrary, बेतरतीब या माने हुए जिनके पीछे कोई ठोस तर्क नहीं होता) ही होते हैं। कुछ प्रमुख भाषाविदों की परिभाषाओं को निम्नवत देखा जा सकता है -

  • ए॰एच॰ गार्डीनर ने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त ध्वनि-संकेतों को 'भाषा' कहा है। उनके अनुसार - "भाषा की सामान्य परिभाषा विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अभिव्यक्तिकुशल ध्वनि प्रतीकों का उपयोग है।" (The common definition of speech as the use of articulate sound-symbols for the expression of thought.[1])
  • बर्नार्ड ब्लॉख़ एवं जॉर्ज ट्रेगर ने भाषा की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी - "भाषा उन यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है जिनके माध्यम से किसी सामाजिक (भाषाई) समूह के सदस्य परस्पर अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।" (A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which members of a social group cooperates and interact.[2])
  • हेनरी स्वीट के अनुसार - "ध्वन्यात्मक शब्दों के माध्यम से प्रत्ययों की अभिव्यक्ति ही भाषा है। शब्दों को वाक्यों में संयोजित किया जाता है, यह संयोजन प्रत्ययों को विचारों में परिणत कर देता है।" (Language is the expression of ideas by means of speech-sounds combined into words. Words are combined into sentences, this combination answering to that of ideas into thoughts.[3][4])
  • लियोनार्ड ब्लूमफील्ड भाषा के संदर्भ में ध्वन्यात्मक प्रतीकों को महत्व देते हैं तथा 'लिखावट' (writing) को केवल साधन मानते हैं। वे कहते हैं कि "लेखन भाषा नहीं है, वह दृश्यमान चिह्नों द्वारा भाषा को अंकित करने का साधनमात्र है।"[5] (Writing is not language, but merely way of recording language by means of visible marks.)
  • एडवर्ड सपीर के अनुसार - "भाषा स्वैच्छिक रूप से बनाए गए प्रतीकों की व्यवस्था के माध्यम से विचारों, भावों और इच्छाओं की विशुद्ध मानवीय और गैर-सहज या यत्नज पद्धति है।" (Language is a purely human and non-instinctive method of communicating ideas, emotions and desires by means of a system of voluntarily produced symbols.[6])
  • ओटो यास्परसन के अनुसार - "मनुष्य ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा अपना विचार प्रकट करता है। मानव-मस्तिष्क वस्तुतः विचार प्रकट करने के लिए ऐसे शब्दों का निरन्तर उपयोग करता है। इस प्रकार के कार्य-कलाप को ही भाषा की संज्ञा दी जाती है।"[7]
  • जोसेफ़ वान्द्रिए के अनुसार - "भाषा एक प्रकार का चिह्न है। चिह्न से तात्पर्य उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक भी कई प्रकार के होते हैं। जैसे नेत्रग्राह्य, श्रोत्रग्राह्य एवं स्पर्शग्राह्य। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ हैं।"[7]
  • बाबूराम सक्सेना के अनुसार - "जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उसे भाषा कहते हैं। भाषा के इस लक्षण में विचार के अंतर्गत भाव और इच्छा भी हैं।"[8]
  • किशोरीदास वाजपेयी का मानना है कि - "विभिन्न अर्थों में संकेतित शब्द समूह ही भाषा है, जिसके द्वारा हम अपने विचार या मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते हैं।"[9]
  • सुकुमार सेन के अनुसार - "अर्थवान कंठोद्‌गीर्ण ध्वनि समष्टि ही भाषा है।"[7]
  • उदयनारायण तिवारी भाषा के स्वरूप-विश्लेषण के क्रम में मानते हैं कि - "भाषा मनुष्य के प्रतीकात्मक कार्यों का प्राथमिक एवं बहुविस्तृत रूप है।"[10]

भाषा के अभिलक्षण

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देखा जाय तो कोई भी परिभाषा भाषा के अभिलक्षण को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं हो पाती। हालाँकि भाषा की उपर्युक्त परिभाषाओं का यदि विश्लेषण किया जाय तो उसके अभिलक्षण या स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है।

भाषा यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों का समूह है
ध्वनि (स्वन) के बिना भाषा की कल्पना कठिन है। मानव समुदाय ध्वनि-प्रतीकों का निर्माण यादृच्छिक रूप से करता है और इनकी सहायता से ही अपने भावों, विचारों या इच्छाओं की अभिव्यक्ति करता है। संक्षेप में भाषा इन्हीं यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों का समूह है। समग्र रूप में भाषा यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों से निर्मित ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा मनुष्य एक-दूसरे के मुख से निःसृत ध्वनियों के माध्यम से सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संदेशों का परस्पर आदान-प्रदान करता है।
भाषा सामाजिक और अर्जित वस्तु है
भाषा के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। बोलने (वक्ता) और सुनने (श्रोता) की प्रक्रिया में ही ध्वनि-प्रतीकों की सार्थकता है। एक व्यक्ति कोई भाषा उत्पन्न नहीं कर सकता बल्कि पहले से मौजूद भाषा को सीखता है। भाषा किसी को विरासत में नहीं दी जा सकती है। इसीलिए यह माना जाता है कि भाषा एक सामाजिक वस्तु है जिसे अर्जित करना पड़ता है।
भाषा क्रमबद्ध वस्तु है
भाषा एक क्रमबद्ध वस्तु है, जिसका मतलब है कि यह एक संगठित और व्यवस्थित प्रणाली है। भाषा के इस क्रमबद्ध स्वरूप के कई पहलू होते हैं, जो इसे एक संरचित और नियमबद्ध प्रणाली बनाते हैं। इसकी ध्वनि व्यवस्था, शब्द संरचना, वाक्य संरचना, अर्थविज्ञान, व्यावहारिकता और व्याकरण के नियम इसे एक संरचित प्रणाली बनाते हैं। इस क्रमबद्धता के बिना भाषा की संप्रेषणीयता और स्पष्टता संभव नहीं होती। इसलिए, भाषा की संरचना और उसके नियम उसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं, जो इसे एक व्यवस्थित और प्रभावी संप्रेषण का माध्यम बनाते हैं।
भाषा अपने में पूर्ण होती है
प्रत्येक भाषा अपने विशिष्ट संबद्ध समाज के लिए पूर्ण होती है, क्योंकि उसके सदस्य बिना किसी रूकावट अपना पारस्परिक व्यवहार उसी भाषा में चलाते हैं। भारतीय समाज में पारिवारिक रिश्तों को प्रकट करने के लिए बुआ, चाचा, ताई, मौसी जैसे अनेक शब्द मिलेंगे किंतु अंग्रेजी भाषा में ऐसा नहीं है। हिंदी वाक्य में क्रियाओं से भी लिंगबोध तय हो सकता है (जाता, जाती, पढ़ता, पढ़ती आदि) किंतु बांग्ला में इसके बिना भी अभिव्यक्ति की कोई समस्या नहीं है। बर्फीले प्रदेश के निवासी लोगों की भाषा में 'बर्फ' से संबंधित अनेक शब्द मिलते हैं किंतु अन्य भाषा के लोगों में ऐसा प्रचलन सामान्यतः नहीं पाया जाता। फिर भी सभी भाषाएँ अपने-अपने सामाजिक परिवेश व्यवस्था के अनुसार अपने सामाजिक व्यवहार के लिए पूर्ण होती हैं।
भाषा परिवर्तनशील वस्तु है
भाषा एक परिवर्तनशील वस्तु है, जिसका मतलब है कि यह समय के साथ बदलती रहती है। यह विभिन्न कारकों से प्रभावित होती है, जैसे — ऐतिहासिक, सामाजिक, तकनीकी, सांस्कृतिक, भौगोलिक, व्यक्तिगत, और प्रवासी परिवर्तन। इस परिवर्तनशीलता के कारण भाषा हमेशा गतिशील और जीवंत रहती है। परिवर्तनशीलता भाषा को न केवल समय के साथ अनुकूलित करने में मदद करती है, बल्कि इसे विविधता और समृद्धि भी प्रदान करती है।

संदर्भ

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  1. Gershon Weiler. Mauthner's Critique of Language. CUP Archive. pp. 28–. GGKEY:6WY9TQH6KWJ. 
  2. Henry, Robert; Crystal, David. "Language". ENCYCLOPÆDIA BRITANNICA. Retrieved 19 March 2020. 
  3. Henry Sweet (21 August 2014). A New English Grammar. Cambridge University Press. pp. 6–. ISBN 978-1-108-07525-1. 
  4. Henry, Robert; Crystal, David. "Language". ENCYCLOPÆDIA BRITANNICA. Retrieved 19 March 2020. 
  5. ब्लूमफील्ड, लियोनार्ड (1968). "भाषा की उपयोगिता". भाषा (PDF) (in हिंदी). दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास. p. 21. 
  6. John Lyons (29 May 1981). Language and Linguistics. Cambridge University Press. pp. 3–. ISBN 978-0-521-29775-2. 
  7. 7.0 7.1 7.2 उदयनारायण तिवारी 1963, p. 2.
  8. सक्सेना, बाबूराम (1943). सामान्य भाषाविज्ञान (PDF) (1947 ed.). प्रयाग: हिन्दी साहित्य सम्मेलन. p. 5. 
  9. वाजपेयी, किशोरीदास (1959). भारतीय भाषाविज्ञान (PDF). वाराणसी: चौखम्भा विद्याभवन. p. 6-7. 
  10. उदयनारायण तिवारी 1963, p. 6.

तिवारी, उदयनारायण (1963). भाषाशास्त्र की रूपरेखा (PDF). इलाहाबाद: लीडर प्रेस.