भाषाविज्ञान/देवनागरी लिपि की विशेषताएँ एवं सुधार के प्रयास

देवनागरी या नागरी लिपि में कुछ विशिष्ट गुण हैं जिनके कारण यह देश के अधिकांश भागों में प्रयोग की जाती है। अपनी विशेषताओं के कारण ही संविधान सभा द्वारा देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को राजभाषा स्वीकार किया गया। उन्नीसवीं सदी के मध्य में कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस शारदाचरण मित्र ने एक प्रस्ताव रखा था कि भारत की सभी भाषाओं की एक ही लिपि 'नागरी' रहे जिससे कि इन भाषाओं में आदान-प्रदान बढ़े। इसके लिए उन्होंने कलकत्ते में ही 'एकलिपि-विस्तार परिषद' की स्थापना भी की, हालांकि उनका यह प्रयास सफल न हो सका।[1] नागरी लिपि की कुछ विशेषताओं के कारण यह संभावना हमेशा बनी रहेगी कि जैसे यूरोपीय भाषाओं में रोमन लिपि को स्वीकार कर लिया वैसे ही भारतीय भाषाएँ भी नागरी को स्वीकार करें। हालांकि यह संभावना स्वेच्छा और लोकतांत्रिक मूल्यों पर ही आधारित होनी चाहिए। देवनागरी लिपि की विशेषताओं को हम निम्न बिंदुओं के माध्यम से समझ सकते हैं।

देवनागरी लिपि की विशेषताएँ सम्पादन

वर्णमाला का वैज्ञानिक वर्गीकरण
नागरी लिपि की विशेषता की बात करें तो सबसे पहली बात जो ध्यान में आती है वह यह है कि इसके ध्वनि-प्रतीक संस्कृत व्याकरण के अनुसार वैज्ञानिक रूप से इस प्रकार वर्गीकृत हैं कि एक स्थान-विशेष से उच्चरित होने वाले अक्षर एक ही वर्ग में सम्मिलित हैं। मनुष्य के मुख-विवर में से ध्वनियों के उच्चारण में सहायक स्थानों का अगर वैज्ञानिक विवेचन किया जाय तो उसका क्रम कुछ इस प्रकार होगा - कंठ > तालु > मूर्धा > दंत > ओष्ठ > नासिका।[2] देवनागरी लिपि में इनके वर्गीकरण को हम निम्नवत रूप में समझ सकते हैं।
(क) कंठ से उच्चरित ध्वनियाँ - अ, आ, क, क़, ख, ख़, ग, ग़, घ, ड, ह और विसर्ग (ः)।
(ख) तालु से उच्चरित ध्वनियाँ - इ, ई, च, छ, ज, ज़, झ, ञ, य।
(ग) मूर्धा से उच्चरित ध्वनियाँ - ऋ, ट, ठ, ड, ड़, ढ, ढ़, ण, र, ल, ष।
(घ) दंत से उच्चरित ध्वनियाँ - त, थ, द, ध, न, स।
(ङ) ओष्ठ से उच्चरित ध्वनियाँ - उ, ऊ, प, फ, ब, भ, म।
(च) नासिका से उच्चरित ध्वनियाँ - ङ, ञ, ण, न, म और अनुस्वार (ं)।
(छ) कंठतालु से उच्चरित ध्वनियाँ - ए, ऐ।
(ज) कंठोष्ठ से उच्चरित ध्वनियाँ - ऑ, ओ, औ।
(झ) दंतोष्ठ से उच्चरित ध्वनियाँ - व।

ऐसा माना जाता है कि किसी भी अन्य लिपि में वर्णमाला का इस प्रकार वैज्ञानिक वर्गीकरण नहीं मिलता। अक्षरों के क्रम की वैज्ञानिकता से संबंधित एक विशेषता यह भी उल्लेखनीय है कि इसमें क्रमानुसार पहले स्वर रखे गए हैं। कंठ से श्वास सीधे स्वरों के रूप में निकलता है। उसके बाद ही व्यंजनों का क्रम है। रोमन लिपि में कोई स्वर कहीं है तो कोई कहीं। ए (A) सबसे पहले है तो ई (E) पाँचवें, आई (I) आठवें, ओ (O) चौदहवें तो यू (U) इक्कीसवें क्रम पर है।

स्वनिम और लेखिम की एकरूपता
नागरी की दूसरी विशेषता है बोलने और लिखने में अधिक से अधिक समानता का होना। हालांकि बोलने और लिखने में पूरी एकरूपता कठिन है किंतु देवनागरी में अपेक्षाकृत यह साम्य अधिक दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए रोमन लिपि में 'उ' की ध्वनि का बोध 'u' से भी होता है (put) और द्वित्व ओ (oo) से भी (foot)। इसके अलावा 'इ' के लिए कहीं रोमन में 'E' (be, degree) का प्रयोग होता है तो कहीं 'I' (Ring, This)। इसके साथ देखा जाय तो एक ही अक्षर कई ध्वनियों का सूचक है। जैसे - U 'अ' (but) की ध्वनि भी देता है और 'उ' (put) की भी। देवनागरी लिपि में ऐसी अवैज्ञानिकता नहीं है।
लिपि-चिह्नों के नाम ध्वनि के अनुरूप
नागरी की एक विशेषता यह भी है कि लिपि-चिह्नों के नाम उनकी ध्वनियों के अनुरूप हैं। जैसे - अ, ओ, क, च, ब आदि। रोमन में यह समस्या है कि उसमें लिपि-चिह्नों के नाम उनकी ध्वनियों के अनुरूप नहीं हैं। देखा जाय तो रोमन में लिपि-चिह्न तीन प्रकार के हैं - पहले प्रकार में वे लिपि-चिह्न जो नाम का या या उसकी प्रथम ध्वनि का काम करता है। जैसे - ए, बी, सी, डी, जी, जे, के, ओ, पी, क्यू, टी, वी, ज़ेड आदि। दूसरे प्रकार में लिपि-चिह्न प्रायः दूसरी ध्वनि का काम करता है; जैसे - एफ़, एल, एन, आर, एस, यू, एक्स आदि। तीसरे प्रकार में लिपि-चिह्न नाम में आई किसी भी ध्वनि का काम न कर किसी अन्य ध्वनि का कार्य करता है। जैसे - ए (अ, आ, ऐ), सी (क) एच (ह), डब्ल्यू (व), वाई (य) आदि। यूँ तो नागरी की तुलना में तीनों ही प्रकार के नाम अवैज्ञानिक हैं, किंतु अंतिम वर्ग तो सर्वाधिक अवैज्ञानिक है।
एक ध्वनि के लिए एक लिपि-चिह्न
किसी भी लिपि में अपने आप यह गुण हमेशा नहीं रह सकता। एक समय किसी लिपि में यह गुण हो सकता है, तो आगे चलकर उच्चारण में अंतर आ जाने के कारण इसका अभाव भी हो सकता है। एक भाषा के प्रसंग में यह गुण हो सकता है, तो दूसरी भाषा के प्रसंग में नहीं हो सकता। इसका आशय यह है कि इस गुण का संबंध लिपि के आंतरिक गुण से न होकर उसके प्रयोग से है। देवनागरी लिपि में एक ध्वनि के लिए एक ही लिपि चिन्ह है, जबकि रोमन में एक ध्वनि के लिए एक से अधिक लिपि चिन्ह प्रयुक्त होते हैं। जैसे - क सूचक ध्वनि के लिए k (kit), c (cat), ch (chemistry), ck (check), q (cheque) आदि। उर्दू में भी यही समस्या है जहाँ 'स' के लिए तीन लिपि-चिह्न हैं - से, स्वाद, सीन। इसी प्रकार 'ज़' के लिए ज़े, ज़ाल, ज़ोय, ज़्वाद आदि। कुछेक अपवादों (ऋ, श, ष) को छोड़ दें तो देवनागरी इस तरह की समस्या से मुक्त है।
सम्पन्नता या लिपि-चिह्नों की पर्याप्तता

स्वर, व्यंजन, अंतःस्थ के अलावा अनुस्वार, अनुनासिक, विसर्ग एवं रेफ के साथ विभिन्न मात्राओं की इतनी सूक्ष्म व्यवस्था है कि ध्वनियों को वह हर स्थिति में यथावत् प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है। 'अ' को छोड़कर अन्य सभी स्वरों की ध्वनि को अन्य वर्णों के साथ उच्चरित करने के लिए उन्हें (स्वरों को) नहीं लिखना पड़ता, बल्कि उनकी मात्रा से वही ध्वनि उच्चरित हो जाती है। जैसे - 'अमेरिका' शब्द में 'म' के बाद 'ए' ध्वनि बोली जाती है और 'र' के साथ 'इ' तथा 'क' के साथ 'आ' ध्वनि का उच्चारण होता है, लेकिन इन्हें े ि और ा से सूचित कर दिया जाता है। रोमन लिपि की भाँति M के बाद E और R के बाद I या K के बाद A अर्थात पूरा वर्ण नहीं लिखना पड़ता। यदि हम देवनागरी में 'अमएरइकआ' लिखेंगे तो उच्चाचरण भी अमेरिका न होकर 'अमएरइकआ' होगा। इसी प्रकार 'प्रबत्स्यत्पतिका' को रोमन अथवा नस्तलीक़ लिपि में लिखने के बाद फिर उसे पढ़ने में जो कठिनाई होगी, उसे प्रयोग द्वारा ही अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है।

सरलता और सुपाठ्यता

देवनागरी लिपि को सीखना आसान है। केवल एक सीधी रेखा (।), एक आड़ी रेखा (-) और अर्द्धवृत्त सीख लेने पर प्रायः सभी देवनागरी अक्षर बनाना सीखा जा सकता है। देवनागरी लिपि उस साँचे की तरह है, जिसमें ध्वनियाँ पूरी सरलता के साथ अपना आकार ग्रहण कर लेती हैं। सरलता के साथ-साथ सुपाठ्यता किसी भी लिपि के लिए आवश्यक गुण है। रोमन की तरह उसमें jal को जल, जाल, जैल या badhai को बढई या बधाई पढ़ने की परेशानी उठाने की संभावना नहीं है। उर्दू (नस्तलीक़ लिपि) में भी खुदा को खदा, खिदा या खेदा पढ़ने की गलती हो जाती है, किंतु देवनागरी में यह समस्या नहीं।

देवनागरी लिपि की सीमाएँ सम्पादन

यद्यपि देवनागरी पर्याप्त वैज्ञानिक लिपि है फिर भी उसमें कुछ सीमाएँ भी दिखाई देती हैं। देवनागरी की सीमाओं का निम्न बिंदुओं के माध्यम से संकेत किया जा सकता है -

  1. माना जाता है कि हिंदी में ऋ, ङ, ञ, और ष के उच्चारण में पर्याप्त विकार आ चुका है, इसलिए इनकी अब कोई आवश्यकता नहीं।
  2. देवनागरी त्वरालेखन (quick writing) के लिए उपयुक्त नहीं है। कोई भी शब्द लिखने के बाद कलम बार-बार उठाना पड़ता है। शिरोरेखा से भी समस्या आती है, इसलिए सुझाव दिया गया कि शिरोरेखा हटा दी जाय।
  3. कई अक्षर एक से अधिक तरीक़ों से लिखे जाते हैं, जिसके कारण भी समस्या होती है। जैसे - अ ( ), झ ( ), ण ( ), ल ( ) आदि।
  4. मुद्रण को लेकर भी समस्या आती है क्योंकि वर्णों, संयुक्ताक्षरों और मात्राओं को मिलाकर कुल 400 से अधिक टाइप रखने पड़ते हैं। इसके कारण टाइपिंग की गति भी प्रभावित होती है।
  5. मात्राएँ आगे ी, पीछे ि, नीचे ु और ऊपर े ै सब जगह लगायी जाती हैं। इसके कारण भी समस्या पैदा होती है।
  6. ख को रव भी पढ़ा जा सकता है। इसी प्रकार ण के पुराने रूप का प्रयोग करें तो कण्ठ को कराठ भी पढ़ा जा सकता है।
  7. संयुक्ताक्षरों को लिखने की भी कई पद्धतियाँ हैं। जैसे - लड्डू, पट्ठा, पन्ना, भक्त, श्रमिक, श्रद्धा आदि।

सुधार के प्रयास सम्पादन

देवनागरी लिपि के सुधार और उसकी सीमाओं को दूर करने के लिए समय-समय पर सुझाव आते रहे हैं। लेखन और मुद्रण संबंधी जो दोष देवनागरी में विद्यमान थे, उनमें सुधार के कुछ प्रयास व्यक्तिगत स्तर पर किए गए तो कुछ संस्थागत स्तर पर।

व्यक्तिगत प्रयास
मुद्रण की समस्याओं की तरफ़ सबसे पहला ध्यान लेखक-संपादक बालगंगाधर तिलक का गया। सन् 1904 ई॰ में अपने पत्र 'केसरी' के लिए उन्होंने कुछ टाइपों को मिलाकर और थोड़े हेरफेर के साथ उनमें कमी करने का प्रयास आरंभ किया। 1926 तक टाइपों की छँटाई करते-करते 190 टाइपों का एक फ़ॉन्ट बना लिया जिसे 'तिलक फ़ॉन्ट' कहते हैं। इसी दौरान महाराष्ट्र के ही सावरकर बंधुओं (विनायक, गणेश और नारायण) ने स्वरों के लिए 'अ' की बारहखड़ी तैयार की। जैसे - अि, अी, अु, अू, अे, अै, ओ, औ जबकि आ, ओ, औ तो चलते ही हैं। वर्धा में इसे कई वर्षों तक प्रयोग में लिया जाता रहा। महात्मा गाँधी के 'हरिजन सेवक' में भी इस बारहखड़ी का प्रयोग किया गया। श्यामसुंदर दास का सुझाव था कि ङ एवं ञ के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाय। जैसे - गङ्गा, पञ्चम आदि के स्थान पर गंगा, पंचम लिखा जाय। गोरख प्रसाद मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिनी ओर अलग से रखने के पक्ष में थे। जैसे - प ु ल, श ै ल आदि। काशी के श्रीनिवास का सुझाव था कि महाप्राण वर्ण हटाकर अल्पप्राण के नीचे कोई चिह्न लगा दिया जाय। माना गया कि इन सुझावों से भी वर्णों की संख्या में कमी होगी।
संस्थागत प्रयास
देवनागरी लिपि में सुधार की दिशा में व्यक्तिगत प्रयासों के साथ-साथ संस्थागत प्रयास भी किए गए। 1935 में "हिन्दी साहित्य सम्मेलन" के इंदौर अधिवेशन में, जिसमें गाँधी जी सभापति थे, "नागरी लिपि सुधार समिति" बनाई गई जिसके संयोजक काका कालेलकर थे। इस समिति ने निम्नलिखित सिफ़ारिशें दीं -
  1. शिरोरेखा लिखने में भले ही न हो किंतु छपाई में रहनी चाहिए।
  2. इ की मात्रा (ि) बाईं ओर ही रहे उ (ु), ऊ (ू), ऋ (ृ), ए (े), ऐ (ै), ओ (ो), औ (ौ) की मात्राएँ और अनुस्वार (ं) चिह्न व्यंजन के बाद हटाकर अलग से लगाए जाएँ।
  3. रेफ (कर्फ्यू, धर्म, तर्क आदि में में र् के लिए चिह्न) को भी अलग से व्यंजन के बाद लगाया जाए।
  4. संयोग में र दूसरे स्थान पर हो तो उसे पूरा लिया जाय, और उसके पहले वाले व्यंजन को आधा। जैसे - प्रकार की जगह प्‌रकार, त्रावणकोर की जगह त्‌रावणकोर आदि।
  5. सावरकर बंधुओं की सुझाई गई बारहखड़ी स्वीकार की जाय।
  6. विराम चिह्न (। , ; आदि) पहले की तरह बने रहें।
  7. ध, भ गुजराती घुंडी के साथ ही लिखे जाएँ।
  8. कोई व्यंजन-संयोग नीचे ऊपर (ट्ठ, ड्ड, द्ध आदि) न हों।

काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 1945 ई॰ में श्रीनिवास के सुझाव को और सारवरकर बंधुओं की बारहखड़ी को अस्वीकार कर दिया। 1947 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जिसने सभी सुझावों का आकलन-अध्ययन करने के पश्चात अपनी सिफ़ारिशें दीं -

  1. अ की बारहखड़ी भ्रामक है।
  2. श्रीनिवास द्वारा प्रस्तावित अल्पप्राण व्यंजन के नीचे ऽ चिह्न लगाकर महाप्राण बना लेना स्वीकार नहीं।
  3. किसी व्यंजन के नीचे दूसरा व्यंजन न जोड़ा जाय।
  4. मात्राएँ यथावत बनीं रहें लेकिन उन्हें व्यंजन से हटाकर रखा जाय।
  5. अनुस्वार और पंचमाक्षरों (ङ, ञ, ण, न, म) की जगह ं का प्रयोग किया जाय।
  6. शिरोरेखा हटाना ठीक नहीं, उसे रखा जाय।
  7. संयुक्त व्यंजनों में पहले व्यंजन की पाई हटाकर शेष व्यंजन हलंत करके लिखे जाएँ।
  8.  ,  , ध, भ, क्ष, त्र के स्थान पर अ, झ, ध, भ, क्‌ष, त्‌र का प्रयोग मान्य हो और श्र बना रहे।
  9. ळ को वर्णमाला में स्थान दिया जाय।

इन सुझावों को संबंधित राज्यों के प्रतिनिधियों और भाषाविदों की सभा में रखा गया। सभा ने दो सुझाव और जोड़े - (1) रव को ख और इ की मात्रा की पाई छोटी करके दाहिनी ओर रखा जाय। इस का बहुत विरोध हुआ। 1957 में इ की मात्रा ि को व्यंजन के पहले लगाया जाना ही स्वीकार किया गया। भारत सरकार ने इन सुझावों में से अधिकांश को मान्यता दे रखी है। टंकण (typing) और मुद्रण (printing) के साथ-साथ सरकारी कामकाज और अधिकतर पाठ्यपुस्तकों में इन्हीं के अनुसार काम चल रहा है। देवनागरी यूनिकोड के लगातार बेहतर होते प्रारूप ने टंकण और मुद्रण की अधिकांश समस्याओं का निराकरण कर लिया है।

संदर्भ सम्पादन

  1. वाजपेयी, किशोरीदास (1958). हिन्दी शब्दानुशासन (2012 ed.). वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा. p. 47. 
  2. गुरु, कामताप्रसाद (1920). हिन्दी व्याकरण (2014 ed.). दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. p. 40. ISBN 978-93-263-5102-7. 

सहायक पुस्तकें सम्पादन

  • भारतीय प्राचीन लिपिमाला, गौरीशंकर हीरानंद ओझा, स्कॉटिश मिशन इंडस्ट्रीज प्रेस, अजमेर, 1918।
  • हिन्दी भाषा और लिपि, धीरेन्द्र वर्मा, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, 1933 (1996 संस्करण)।
  • हिन्दी भाषा और नागरी लिपि, भोलानाथ तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, (2017 संस्करण)।
  • हिन्दी भाषा और नागरी लिपि, देवेन्द्रनाथ शर्मा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 2004।
  • हिन्दी भाषा, हरदेव बाहरी, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद, 2013।