भाषाविज्ञान/अर्थ विज्ञान की परिभाषा

अर्थविज्ञान (Semantics) (Ancient Greek: σημαντικός sēmantikós, "significant") भाषा, प्रोग्रामिंग भाषाओं (programing languages), औपचारिक तर्कशास्त्र (formal logics) और संकेतशास्त्र (semiotics) में अर्थबोध का भाषावैज्ञानिक और दार्शनिक अध्ययन है। इसका सरोकार संकेतकों के आपसी संबंध - जैसे कि शब्द, वाक्यांश, संकेत और प्रतीक — और इस बात से है कि वास्तव में उनका बोध किस बात में निहित है। अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक शब्दावली में सेमेंटिक्स को सेमेसियोलॉजी (semasiology) भी कहा जाता है। सेमेंटिक्स (Semantics) शब्द का प्रयोग सबसे पहले मिशेल ब्रील (Michel Bréal) ने किया, जो एक फ्रांसीसी दार्शनिक थे।[1]

अर्थ विज्ञान लोकप्रिय से लेकर निहायत तकनीकी विचारों तक शब्द की पहुँच को दर्शाता है। इसे सामान्य भाषा में अक्सर समझने की समस्या (problem of understanding) के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो शब्द चयन या लक्ष्यार्थ में निहित रहता है। समझने की यह समस्या लंबे समय से कई औपचारिक पूछताछों (formal enquiries) का विषय रही है, विशेषकर औपचारिक शब्दार्थ के क्षेत्र में। भाषाविज्ञान में, यह विशेष परिस्थितियों और संदर्भों में व्याकरणिक घटकों या भाषिक-समुदाय में उपयोग किए जाने वाले संकेतों या प्रतीकों की व्याख्या का अध्ययन है।[2]

अर्थविज्ञान के उपर्युक्त संदर्भ को ध्यान में रखकर भोलानाथ तिवारी ने माना है कि अर्थविज्ञान का अध्ययन बहुत कुछ मनोविज्ञान और तर्कशास्त्र की अपेक्षा रखता है। प्रत्येक सार्थक शब्द अपने साथ एक भाव या विचार रखता है। यही भाव या विचार अर्थ के रूप में उस शब्द का प्राण या सार्थकता है। शब्दों का महत्व जिस तत्व पर टिका है उसे ही पारिभाषिक शब्दावली में अर्थ-तत्व या अर्थग्राम (semanteme) कहते हैं। किसी शब्द का अर्थ हमेशा एक जैसा नहीं रहता। समय, प्रसंग और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया चलती रहती है। अर्थविज्ञान में अर्थ में आए इन्हीं परिवर्तनों और उनके विकास का अध्ययन किया जाता है। इसीलिए भोलानाथ तिवारी मानते हैं कि "अर्थविज्ञान के अंतर्गत हम किसी शब्द के अर्थतत्व में होने वाले परिवर्तन या विकास के कारण तथा उसकी दिशा पर विचार करते हैं।"[3]

भारतीय परंपरा में शब्दार्थ के संबंध में यास्क का "निरुक्त" और भर्तृहरि का "वाक्यपदीय" उल्लेखनीय हैं। यास्क के अनुसार अर्थ वाणी का फल-फूल है - 'अर्थ याचः पुष्पफलमाह।' (निरुक्त, 1/20) देखा जाय तो किसी भी पेड़ से हमें वही फल-फूल मिलते हैं जिसे हम बीज रूप में लगाते हैं। कहावतों में इसीलिए आता है कि 'बोए पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होय?' यहाँ स्पष्ट रूप में तर्क और मनोवविज्ञान का दर्शन हो जाता है। भर्तृहरि ने 'शब्द से होने वाली प्रतीति' को 'अर्थ' कहा है[4] -

"यस्मिंतस्तूच्चरिते शब्दे यदा योऽर्थः प्रतीयते।
तमाहुरर्थं तस्यैव नान्यदर्थस्य लक्षणम्॥" (वाक्यपदीय 2/330)

पारंपरिक भारतीय भाषाचिंतन और आधुनिक भाषाविज्ञान, दोनों संदर्भों में देखें तो भर्तृहरि की परिभाषा उचित जान पड़ती है। अर्थ वस्तुतः और कुछ नहीं शब्द द्वारा अभिव्यक्त या संकेतित वस्तु की प्रतीति (ज्ञान) ही है। यह प्रतीति ही वक्ता के अभिप्राय को स्पष्ट कर उसके शब्द को सार्थक बनाती है।

संदर्भ सम्पादन

  1. Chambers Biographical Dictionary, 5e.1990, p.202
  2. Neurath, Otto; Carnap, Rudolf; Morris, Charles F. W. (Editors) (1955). International Encyclopedia of Unified Science. Chicago, IL: University of Chicago Press. PMID 17832642.
  3. तिवारी, भोलानाथ. भाषाविज्ञान (1951 ed.). इलाहाबाद: किताब महल प्राइवेट लिमिटेड. p. 245. 
  4. झा, सीताराम (1983). भाषा विज्ञान तथा हिन्दी भाषा का वैज्ञानिक विश्लेषण (2015 ed.). पटना: बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी. p. 209. ISBN 978-93-83021-84-0.