एयरोस्पेस इंजीनियरिंग

(ऐरोस्पेस इंजिनीयरिंग से अनुप्रेषित)

एयरोस्पेस इंजीनियरिंग (Aerospace engineering) विमान और अंतरिक्ष यान के विकास से संबंधित इंजीनियरिंग का प्राथमिक क्षेत्र है।। इसका आमतौर पर मतलब हवाई जहाज, उपग्रहों, रॉकेट या अंतरिक्ष यान के विकास के अध्ययन से होता हैं। इसमें दो प्रमुख और अतिव्यापी शाखाएं हैं: एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग और एस्ट्रोनॉटिकल इंजीनियरिंग। [1]

नासा के इंजीनियर, जो अपोलो 13 के दौरान मिशन नियंत्रण देखा रहे है

शाखाएं

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एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग (Aeronautical engineering)

एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में उन वाहनों के विकास का अधयन किया जाता है जो पृथ्वी के वायुमंडल में उड़ते है और जिन पर वायुमंडल दाब कार्य करता हैं। जैसे- हेलीकॉप्टर, विमान आदि। इन सभी पर उड़ते समय वायुमंडल का दाब कार्य करता है तथा घर्षण जैसे करको को इस इंजीनियरिंग में संतुलित करने का अधयन कराया जाता है।

एस्ट्रोनॉटिकल इंजीनियरिंग (Astronautical engineering)

एस्ट्रोनॉटिकल इंजीनियरिंग जैसा कि इसके नाम से प्रतीत हो रहा है एस्ट्रो अर्थात खगोल। इसमें उन वाहनों के विकास का अधयन किया जाता है जो पृथ्वी के वायुमंडल के बाहर उड़ते है और जिन पर वायुमंडल दाब कार्य नहीं करता हैं। जैसे अंतरिक्षयान और रॉकेट के अपर स्टेज। इसमें वाहनों को वायुमंडल के बाहर पड़ने वाले करको जैसे कॉस्मिक किरण, रेडिएशन और चुम्बकीय तरंग आदि से बचाव का अध्ययन कराया जाता है।

नोट:- कुछ विश्वविद्यालय दोनो डिग्री में अंतर करते है और विद्यार्थी को डिग्री के अनुरूप अलग अलग विषय पढ़ते है जबकि कुछ विश्वविद्यालय दोनो में अंतर नहीं करते है और दोनो का सम्मिलित अध्यन कराते हैं। और विद्यार्थी को एरोस्पेस इंजीनियरिंग नाम से डिग्री देते है।

योग्यता मापदंड

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अंडरग्रेजुएट के लिए

विद्यार्थी को सीबीएसई या कोई अन्य समकक्ष परीक्षा बोर्ड से 10+2 (इंटर) की परीक्षा उत्तीर्ण होनी चाहिए। तथा भौतिकी, रसायन विज्ञान और गणित बिषय बोर्ड में मुख्य रूप से होने चाहिए।

पोस्टग्रेजुएट के लिए

विद्यार्थी के पास एरोस्पेस इंजीनियरिंग में बी.टेक या बी.ई की डिग्री होनी चाहिए, जिसमें ग्रैजुएशन स्तर पर अध्ययन किए गए विषयों में न्यूनतम उत्तीर्ण प्रतिशत होना चाहिए।

डिग्री प्रोग्राम

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एरोस्पेस इंजीनियरिंग का अध्ययन उन्नत डिप्लोमा, बैचलर ऑफ टैकनोलजी (बी.टेक), मास्टर ऑफ टैकनोलजी (एम.टेक) और पीएचडी में किया जा सकता हैं। कई विश्वविद्यालयों में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग विभागों में होते है परंतु कुछ विश्वविद्यालयों में यह मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में कराई जाती हैं। कुछ विभाग अंतरिक्ष-केंद्रित एस्ट्रोनॉटिकल इंजीनियरिंग में डिग्री प्रदान करते हैं तथा कुछ संस्थान एयरोनॉटिकल और एस्ट्रोनॉटिकल के बीच अंतर करते हैं। एरोस्पेस उद्योग में स्नातक (ग्रैजुएशन) डिग्री की मांग की जाती है।

एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की डिग्री करने वाले छात्रों के लिए रसायन विज्ञान, भौतिकी, कंप्यूटर विज्ञान और गणित का क्षेत्र महत्वपूर्ण होता हैं। इसमें उनकी अच्छी पकड़ होनी चाहिए।

भारत में डिग्री प्रोग्राम

भारत में कुछ विश्वविद्यायल के प्रोग्राम निम्नलिखित है:

ग्रैजुएशन डिग्री योग्यता
अंडर ग्रेजुएट बी.टेक (B.tech)
बी.ई (B.E)
10+2 (इंटर), भौतिक रसायन और गणित बिषय के साथ।
पोस्ट ग्रेजुएट एम.टेक (M.tech)
एम.ई (M.E)
विश्वविद्यालय से न्यूनतम प्रतिशत के साथ पास की गई बी.टेक की डिग्री।
भारत में एरोस्पेस के कुछ उच्च विश्वविद्यालय
  • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान
    • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे (IIT), मुंबई
    • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर (IIT), कानपुर
    • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास (IIT), चेन्नई
    • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर (IIT), खड़गपुर
    • भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान, तिरुवनंतपुरम (IIST), तिरुवनंतपुरम
    • भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc), बैंगलोर
  • डॉ एपीजे अब्दुल कलाम तकनीकी विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश
    • फिरोज गांधी इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी संस्थान (FGIET), रायबरेली, उत्तर प्रदेश
    • बाबू बनारसी दास नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड मैनेजमेंट, लखनऊ (BBDNITM), उत्तर प्रदेश

एयरोस्पेस इंजीनियरिंग का दायरा

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यु तो एरोस्पेस का दायरा काफी बड़ा हैं। आजकल दुनिया को एरोस्पेस में काफी क्रांति चाहिए। हर रोज वैमानिकी में नए सुधार की जरूरत हैं। परंतु भारत में एरोस्पेस का दायरा ज्यादा बड़ा नहीं हैं। भारत में बहुत कम एरोस्पेस से जुड़े उद्योग हैं। और यह जायदातर सरकार से जुड़ा हैं। एरोस्पेस इंजीनियर भारत की विभिन्न सरकारी संस्थानों में जॉब कर सकते हैं। जैसे:- इसरो, डीआरडीओ और हिन्दुस्तान एयरोनॉटिकल लिमिटेड आदि।

इन्हें भी देखें

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संबंधित विषय

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संदर्भ

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  1. Encyclopedia of Aerospace Engineering. Wiley & Sons. October 2010. ISBN 978-0-470-75440-5