आधुनिककालीन हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास/नवगीत

नवगीत साठोत्तरी हिंदी कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति है। इसके आरंभ को लेकर विवाद है किंतु मोटे तौर पर इसे नयी कविता के दौर से संबंधित माना जा सकता है। शंभुनाथ सिंह का मानना है कि "नयी कविता छायावादी, प्रयोगवादी और प्रगतिवादी भाव-बोध से भिन्न आधुनिक भाव-बोध की कविता है और नया गीत उसी का अंश है।"[1] ऐसा माना जाता है कि यह काव्यांदोलन नई कविता के एक दावे के विरोध में उत्पन्न हुआ जिसके तहत उसके समर्थक मानते थे कि आधुनिक भावबोध पर आधारित कविताओं की विषय-वस्तु इतनी जटिल और विश्लेषणात्मक है कि इसको गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करना संभव नहीं है। उनका यह भी मानना था गीत की रचना के लिए जो तीव्र भावुकता, रोमानियत और प्रवाह चाहिए वह आधुनिक काव्यानुभव के साथ मेल नहीं खाता। इस दावे के उलट नवगीत समर्थकों ने आधुनिक भावबोध से संबद्ध गीत रचे और सिद्ध किया कि गीत एक नितांत प्रासंगिक विधा है।[2][3]

नवगीत और नवगीतकार

'नवगीत' का संज्ञा के तौर पर सर्वप्रथम मुद्रित प्रयोग नवगीतकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने 1958 में किया। नवगीत को परिभाषित करते हुए उन्होंने मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार से 5 फ़रवरी 1958 को प्रकाशित 'गीतांगिनी' की भूमिका में लिखा - "समकालीन हिंदी कविता महत्वपूर्ण और महत्वहीन रचनाओं के विस्तृत आंदोलन में गीत-परंपरा 'नवगीत' के निकाय में परिणति पाने को सचेष्ट है। ...नवगीत नयी अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग और नवीन प्रविधियों का संतुलन होगा।"[4][5][6]

प्रमुख नवगीतकारों में शंभुनाथ सिंह, केदारनाथ सिंह, गोपालदास नीरज, धर्मवीर भारती, रवीन्द्र भ्रमर, रमेश रंजक, कुमार शिव, वीरेन्द्र मिश्र, कुँवर नारायण, जगदीश गुप्त, बालस्वरूप राही, रामदरश मिश्र, नरेश सक्सेना, ओम प्रभाकर, बुद्धिनाथ मिश्र, राजेन्द्र प्रसाद सिंह तथा उमाकांत मालवीय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

नवगीत की विशेषताएँ
  • नवगीत के केंद्र में आज़ादी के बाद उभरी परिस्थितियों और सभी विचारधाराओं के प्रति निराशा और मोहभंग का भाव मिलता है। यही भाव नई कविता में मौजूद था। शंभुनाथ सिंह 'समय की शिला' में लिखते हैं -

"समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए।

किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूँद पानी
इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के
गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।"

गोपालदास 'नीरज' ने कुछ ऐसे ही भाव 'कारवां गुज़र गया' में चित्रित किया -

"स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!"

'दूर होती जा रही है कल्पना' गीत में वीरेन्द्र मिश्र ने मोहभंग और यथार्थ की स्वीकृति का भाव उकेरा है -

"दूर होती जा रही है कल्पना
पास आती जा रही है ज़िन्दगी।

आज आशा ही नहीं विश्वास भी
आज धरती ही नहीं आकाश भी
छेड़ते संगीत नवनिर्माण का
गुगुनाती जा रही है ज़िन्दगी।"

  • नवगीत की एक प्रमुख विशेषता क्रांतिधर्मिता भी है। यह क्रांतिधर्मी चेतना प्रगतिवादी और जनवादी कवियों में भी मौजूद थी। 'सारथी सुन' कविता में रमेश रंजक पूछते हैं -

"फिर नए आकार जनमें
गेह में, गिरि पर, चमन में
हर क़लम से पूछता हूँ कौन गाएगी प्रभाती?

भूमि पर, मन पर, बदन पर
है अमावस का बसेरा
चन्द लोहे की छड़ों में
बन्द है युग का सवेरा
धूल कर निज स्वार्थ का गढ़
साधना-सोपान पर चढ़
कौन लिख पाया किसी उजली किरण को एक पाती?"

  • शोषित-वंचित वर्ग के प्रति करूणा का भाव नवगीत की अमूल्य निधि है। हालाँकि इस करूणा की अभिव्यक्ति के लिए नवगीतकार सपाटबयानी की जगह गीत का माध्यम चुनता है। रमेश रंजक लिखते हैं -

"रंग के भाग ठिठोली लिखी है, रूप के भाग में चीर,
अपने तो भाग मजूर के भाग हैं, भाल पे श्याम लकीर।"

'कतार में खड़े अन्तिम व्यक्ति का विदागीत' में कुमार शिव समाज में शोषित और वंचित अंतिम व्यक्ति का विदागीत कुछ इस तरह रचते हैं -

"काले कपड़े पहने हुए/सुबह देखी
देखी हमने दिन की/सालगिरह देखी!

हमको सम्मानित होने का/चाव रहा
यश की मन्दी में पर मन्दा/भाव रहा
हमने चाहा हम भी बनें/विशिष्ट यहाँ
किन्तु हमेशा व्यर्थ हमारा/दाँव रहा
किया काँच को काला/सूर्यग्रहण देखा
और धूप भी हमने/इसी तरह देखी!"

  • लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति नवगीतकार एक असंतोष के भाव से भरा हुआ है। यह असंतोष लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल दिए जाने का है। बालस्वरूप राही 'उदास अधूरापन' में लिखते हैं -

"सब सत्यों के खो जाने के बाद जो
स्वप्न जागता है
बुनना हो तो उसे बुनो!

हर जुलूस कुछ नारों का अनुगामी है
भीड़ों का कोई व्यक्तित्व नहीं होता
सब से अधिक आणि जाती हैं अफवाहें
बहुमत में सच का अस्तित्व नहीं होता।"

  • नवगीत की एक प्रमुख विशेषता लोकगीत, लोकधुन और लोकजीवन का गीतों में प्रयोग किया जाना है। केदारनाथ सिंह के 'धानों का गीत' में लोकजीवन का चित्र द्रष्टव्य है -

"धान उगेंगे कि प्रान उगेंगे
उगेंगे हमारे खेत में,
आना जी, बादल ज़रूर!
चन्दा को बाँधेंगे कच्ची कलगियों
सूरज को सूखी रेत में
आना जी, बादल ज़रूर!"

राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने 'कूदे उछल कुदाल' में लोकजीवन का सुंदर चित्रण किया है -

"भैया, कूदे उछल कुदाल,
हँसियाँ बल खाये!
भोर हुई, चिड़ियन संग जागे,
खैनी दाब, ढोर संग लागे,
आँगन लीप, मेहरिया ठनकी,
दे न उधार बनियवां सनकी,
कारज-अरज जिमदार न माने,
लाठियल अमला विरद बखाने.
भैया, तामे भूख किवाल,
तिरखा कटखाये!"

साठोत्तरी कविता के दौर में नवगीत आंदोलन का सबसे बड़ा योगदान यह माना जा सकता है कि इसने गीत जैसी विधा को नितांत वैयक्तिकता और कोरी भावुकता की दुनिया से निकालकर समाज की वास्तविक स्थितियों से जोड़ा, साथ ही अपने अनूठे अभिव्यक्ति कौशल से इस विधा को पुनः प्रासंगिक बना दिया।

संदर्भ सम्पादन

  1. सुरेश गौतम; वीणा गौतम (1985). नवगीत : इतिहास और उपलब्धि (प्रथम ed.). नई दिल्ली: शारदा प्रकाशन. p. 36. 
  2. सत्येन्द्र शर्मा (1993). नवगीत : संवेदना और शिल्प. इलाहाबाद: साहित्य संगम. pp. 9–10. 
  3. राधेश्याम बन्धु, ed. (2004). नवगीत और उसका युगबोध. समग्र चेतना. p. 84. 
  4. सिंह, राजेन्द्र प्रसाद (5 February 1958). "भूमिका". गीतांगिनी. 1 (1): 3. 
  5. सिंह, राजेन्द्र प्रसाद. "गीत रचना और 'नवगीत'". हिंदी समय. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय. Retrieved 16 June 2021. 
  6. रवीन्द्र भ्रमर (1972). समकालीन हिन्दी कविता. राजेश प्रकाशन. p. 84.