आधुनिककालीन हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास/छायावाद : परिवेश और प्रवृत्तियाँ

बीसवीं सदी के दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध में हिंदी कविता में एक नयी प्रवृत्ति का उदय हो रहा था। यह प्रवृत्ति पूर्व की काव्य-प्रवृत्तियों के साथ-साथ द्विवेदीयुगीन वस्तुवादी-नैतिकतावादी दृष्टि से भी भिन्न थी। इसी उदित होती नयी प्रवृत्ति, जिसे स्वच्छंदतावाद (Romanticism) कहा जाता है, ने छायावाद के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।

प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) ने साम्राज्यवाद के समूचे ढाँचे पर ज़बरदस्त प्रहार किया। 1917 में रूसी क्रांति ने भी संपूर्ण विश्व पर अपना प्रभाव जमाया। भारत में भी इसी दौर में जन आंदोलनों का सूत्रपात हुआ। इससे पहले तक भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असंतोष केवल चिट्ठियों, आवेदनों और लेखों से ही अभिव्यक्त हो रहा था। 1915-16 के दौरान गांधी जी के भारत आगमन के साथ कांग्रेस का आंदोलन शहरी शिक्षित मध्यवर्ग से निकलकर गरीब किसानों और मज़दूरों के बीच भी फैल गया। इसके साथ ही यह भावना प्रबल होने लगी कि केवल स्वतंत्रता और मुक्ति ही एकमात्र लक्ष्य हो सकता है। दासता से मुक्ति की आकांक्षा इतनी प्रबल हो रही थी कि यह केवल राजनीति के क्षेत्र तक सीमित नहीं थी बल्कि प्राचीन रूढ़ियों, मान्यताओं और रीतिरिवाजों से मुक्ति की कामना के रूप में भी उभर रही थी।

पुनर्जागरण से प्रेरित यूरोप के स्वच्छंदतावादी साहित्यिक आंदोलन ने भारतीय मध्यवर्ग की सोच और संवेदना को नया आधार प्रदान किया। मुक्ति की जैसी इच्छा और छटपटाहट भारत का मध्यवर्ग इस समय महसूस कर रहा था, कुछ वैसी ही भावना उस समय के यूरोपीय समाज में मौजूद थी। इसलिए यह स्वाभाविक था कि नये कवि उनके काव्य से प्रेरणा लेते। कीट्स, बायरन, वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली आदि रोमैंटिक कवियों के काव्य और उनके लेखन ने उन्हें सोचने-समझने का नया आयाम प्रदान किया।

छायावाद की प्रवृत्तियों को समझने के लिए तत्कालीन परिवेश और सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि की चर्चा आवश्यक है। हालाँकि नामवर सिंह का मानना है कि "आरंभ में सामाजिक पृष्ठभूमि देकर फिर किसी काव्य-प्रवृत्ति पर विचार करने से कोई बात नहीं बनती। इससे पुस्तक, पाठक और लेखक के साथ ही उस कविता पर भी भार बढ़ता है। सामाजिक सत्य कविता से खोज निकालने की चीज है, ऊपर से आरोपित करने की नहीं।"[1] छायावादी काव्य-प्रवृत्तियों पर विचार करने के साथ ही हम तत्कालीन परिवेश को भी बेहतर ढंग से समझ पाएँगे।

छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

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भावगत विशेषताएँ
वैयक्तिकता

छायावादी काव्य समाज में व्यक्ति के स्वतंत्र व्यक्तित्व की कल्पना करता है। छायावादी युग में पहली बार कवि ने स्वतंत्र होकर स्वयं के जीवन की घटनाओं का वर्णन किया। "जैसे ही कोई पाठक छायावाद की सीमा में प्रवेश करता है, ये कविताएँ तुरंत अपनी आत्मीयता से उसे आकृष्ट कर लेती हैं। यहाँ वह देखता है कि कवि निर्वैयक्तिकता का सारा आवरण उतारकर एक आत्मीय की भाँति अत्यंत निजी ढंग से बातें कर रहा है।"[2] इस वैयक्तिकता में कवि सीधे-सीधे 'मैं शैली' में बात करता है और पाठक को उसके भावों के साथ तादात्म्य अनुभव करने में सुगमता होती है। निराला घोषित करते हैं -

"मैंने 'मैं'-शैली अपनाई
देखा दुखी एक निज भाई
दुःख की छाया पड़ी हृदय में मेरे
झट उमड़ वेदना आई।"

महादेवी वर्मा ने माना कि "आज का रचनाकार अपनी हर साँस का इतिहास कह देना चाहता है।" निराला और महादेवी की कविताएँ इसी वैयक्तिकता की चेतना को स्पष्ट करती हैं -

"दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही।" (निराला)
"मैं नीर भरी दुःख की बदली।" (महादेवी वर्मा)

व्यक्ति में वैयक्तिक चेतना जाग चुकी थी किन्तु समाज में इतनी उदारता नहीं आई थी कि वह सहजता से वैयक्तिक स्वातंत्र्य को स्वीकार कर लेता। इसीलिए समाज से टकराहट के परिणामस्वरूप व्यक्ति में निराशा व वेदना की भावना का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। इस निराशा को आलोचक पलायनवाद भी कह देते हैं। प्रसाद कहते हैं –– 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे।' हालाँकि इस कविता में प्रसाद की वैयक्तिक चेतना 'सृजन' और 'अमर जागरण' की आकांक्षा से युक्त है न कि पलायनवाद से ––

"श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी रे!" –– ('मेरे नाविक' कविता से.)

आत्म-प्रसार की आकांक्षा

आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा वस्तुतः आत्म-प्रसार की आकांक्षा थी। कवियों के समक्ष ज्ञान-विज्ञान के नए आलोक में संसार का विराट रूप सामने आया। "'विराट' की आकांक्षा में अपनी रूढ़िगत सीमाओं को तोड़ने का कितना साहस था, यह इसी से मालूम होता है कि छायावाद-युग ने निर्झर अथवा प्रपात पर जितनी कविताएँ लिखीं, उतनी शायद ही किसी और युग में लिखी गई होंगी। निर्झर छायावादी स्वच्छंदता का प्रतीक बन गया; वह शिला-खंडों के गतिरोध को तोड़ता हुआ, घन-बन-अंधकार को पार करके वेग से अनंत जल-निधि की ओर चल देता है।"[3]

प्रकृति-प्रेम

छायावाद में प्रकृति इस तरह समाहित है कि उसे अलग करना संभव नहीं है। छायावादी सौंदर्य प्रकृति के अभाव में प्राणहीन हो जाता है। प्रकृति का आलंबन, उद्दीपन, मानवीकरण, दूती, रहस्यवादी रूप में विशद चित्रण हुआ है। प्रसाद के यहाँ प्रकृति का मानवीकरण द्रष्टव्य है ––

"बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा-घट ऊषा नागरी!
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर ला‌ई-
मधु मुकुल नवल रस गागरी।"

नारी के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण

प्रकृति के समान ही नारी को भी छायावादी काव्य में अभूतपूर्व प्रधानता मिली। यहाँ तक कि उसे स्त्रैण काव्य तक कह दिया गया। द्विवेदीयुगीन कविताओं में नारी के प्रति दया या सहानुभूति का भाव अधिक है, यथोचित सम्मान का नहीं।

राष्ट्रीय जागरण का काव्य

छायावाद के संबंध में नामवर सिंह ने माना है कि - "व्यक्तित्व की स्वाधीनता, प्रकृति का साहचर्य और स्वतंत्र नारी की शक्ति का सहयोग पाकर आधुनिक पुरुष व्यापक सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगा। वह केवल प्रेम और सौंदर्य का ही बंदी नहीं रहा। उसने केवल प्रेम-राज्य में ही रूढ़ियों के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया; बल्कि जीवन के जिस क्षेत्र में उसे विषमता, पराधीनता और अन्याय दिखाई पड़ा, वहीं उसने संघर्ष आरंभ कर दिया। इस व्यापक राष्ट्रीय जागरण का प्रभाव छायावाद की कविता पर भी पड़ा।"[4] नामवर सिंह स्पष्ट करते हैं कि पराधीन समाज में राष्ट्रीयता की भावना का उदय 'पुनरुत्थान-भावना' से होता है।[5] जयशंकर प्रसाद ने 'स्कंदगुप्त' के गीत 'हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार' के माध्यम से इसी पुनरुत्थान-भावना की अभिव्यक्ति की है। भारतीय सांस्कृतिक विरासत की समृद्धि का उल्लेख करते हुए वे अंततः कहते हैं -

"वही है रक्त, वही है देह, वही साहस है, वैसा ज्ञान।
वही है शांति, वही है शक्ति वही हम दिव्य आर्य संतान।
जिएँ तो सदा, उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।"

छायावादी काव्य की केंद्रीय चेतना स्वतंत्रता की आकांक्षा है। यहाँ स्वतंत्रता केवल एक राजनीतिक माँग नहीं है बल्कि जीवन-मूल्य है। यह स्वतंत्रता रूढ़ियों से, धर्म से, समाज से है। पंत ने 'वीणा' कविता में मानव मुक्ति एवं विश्व मुक्ति की कल्पना की है-

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि! तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि! पाया तूने यह गाना?
खुले पलक, फैली सुवर्ण छवि, खिली सुरभि डोले मधु-बाल।
स्पंदन, कंपन, नव जीवन फिर सीखा जग ने अपनाना।

कल्पनाशीलता

प्रसाद का मानना है कि कल्पना मानव जीवन का प्राण है। छायावादी कवियों ने रूढ़िगत मान्यताओं का तर्कों के आधार पर विरोध किया तथा ख़ुद अपने सत्य खोजने का प्रयास किया। सत्य के प्रति जिज्ञासा ने इन्हें कल्पनाशील बनाया। जब शास्त्रों में उत्तर नहीं मिलता तो कल्पना में उन्हें ढूँढा जाता है। इसीलिए ये कवि कल्पना की अत्यधिक प्रशंसा करते हैं। प्रसाद कहते हैं ––

"आह! कल्पना का सुंदर यह जगत मधुर कितना होता!
सुख-स्वप्नों का दल छाया में पुलकित हो जगता-सोता।" –– आशा सर्ग, 'कामायनी'

शिल्पगत विशेषताएँ
रूप-विन्यास
पद-विन्यास
छन्द-योजना

संदर्भ

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  1. नामवर सिंह 1955, p. 5-6 (भूमिका से).
  2. नामवर सिंह 1955, p. 18.
  3. नामवर सिंह 1955, p. 27.
  4. नामवर सिंह 1955, p. 71.
  5. नामवर सिंह 1955, p. 72.


  • नामवर सिंह (1955), छायावाद (बीसवाँ संस्करण 2018), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-0736-2.